एक मित्र है, बहुत ही महान सनातनी योद्धा है। कुछ समय पहले एक नगर में मकान ढूँढ रहे थे, तो हर जगह जाति पूछी गयी। बहुत दुखी थे। वे हर समय जातिवाद के विरुद्ध लिखते रहे है।
मार्केट एक स्थान नहीं, process है, प्रक्रिया है। इसमें समाज के सदस्य स्वेच्छा से अपने उत्पाद ख़रीदते बेचते है। अगर कोई सदस्य या समूह बल प्रयोग कर, चाहे वह स्वयं बल प्रयोग करे या सरकार से करवाए अपने पक्ष में, तो अन्य सदस्य उससे अपने उत्पाद की ख़रीदफ़रोख़्त बंद कर देते है। व्यापार बंद होने से division of labour कम हो जाता है व परिणामत पूरे समाज की सम्पन्नता काम हो जाती है।
इसलिए जहाँ हिंसा है, वहाँ ग़रीबी है, फिर हिंसा चाहे सरकार द्वारा ही भिन्न समूहो के लिए भिन्न क़ानून बना कर क़ानून रूपी हिंसा ही की जाय।
मकान मालिक व किरायेदार में झगड़े होते रहते है। अगर किरायेदार या मकान मालिक की केवल रिपोर्ट पर ग़ैर ज़मानती गिरफ़्तारी हो जाय तो ऐसे समूह से किराए पर मकान लेने देने का व्यापार कम हो जाएगा।
यही परिणाम सरकार द्वारा मूक रहकर ट्रेड यूनीयनो को दिए गए हिंसा के अधिकार का हुआ है। उद्योग पलायन कर गए, बंद हो गए, बेरोज़गारी व ग़रीबी रह गयी।
फ़िल्म नमक हराम का राजेश खन्ना सबको अच्छा लगता है: हिंसा व उग्रता का अपना एक primal आकर्षण होता है। फिर उग्र राजेश खन्ना को शांत व विवेक्शील पांडे जी के मुक़ाबले आरम्भ में परिणाम भी अच्छे मिलते है। लेकिन अंत में राजेश खन्ना विनाश देता है। मुंबई का मिल एरिया घूम आए, खण्डहर है, मिलो के कंकाल है।
भिंडरवाले को सिक्ख रोक सकते थे। लेकिन उग्रता सबको अच्छी लगती है। उन दिनो जब भी पंजाब में बंद बुलाया जाता था तो दिल्ली में भी बंद होता था। भिंडरवाले तो चला गया, पीछे विनाश व रोज़ गहरी होती समुदायों के बीच की खाई छोड़ गया।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवो में अपने से पहली पीढ़ी के कई लोगों को में जानता हूँ जिन्हें उनके माता पिता सरकारी नौकरी से वापिस घर ले आए थे: आवश्यकता नहीं है, अपने खेत काफ़ी है। अब से चालीस साल पहले तक भी सभी जातियों में अपने पुष्तेनी व्यवसाय लिए जाते थे। नौकरी बहुत कम लोग करते थे। इसीलिए जो भी शिक्षित होता था, नौकरी मिल जाती थी-सरकारी नौकरी।
समय बदला। खेत की ज़मीन भी नहीं रही, पुष्तेनी व्यवसाय भी नहीं रहे। लोगों ने ये भी देखा कि जो नौकरी कर रहे थे उनकी जीवन शैली अच्छी थी। इसलिए सब नौकरी के पीछे दौड़े। जो लोग पहले से नौकरी में थे उनके बच्चों को भी नौकरी मिलने के लाले पड़ने लगे। वरना पहले लगातार तीन तीन पीढ़ियों में IAS बना करते थे।
लेकिन क्यूँकि हर जाति का शिक्षित वर्ग नौकरी में ही था तो उन्होंने अपनी संतानो के लिए नौकरी का एक ही तरीक़ा समझ में आया: सरकारी नौकरियाँ बढ़े, सबकी नहीं तो अपनी जाति की आरक्षण द्वारा बढ़े। इसलिए समाजवाद बढ़ा, सरकारी क्षेत्र बढ़ा, आरक्षण बढ़ा, आरक्षण माँगने वाले बढ़े।
जातियों के लिए अलग क़ानून बनने लगे, और लोगों ने किराएदार की जाति पूछना आवश्यक मानना आरम्भ कर दिया।
भारत का विनाश इसके शिक्षित वर्ग ने किया है, क्यूँकि लगभग पूरा शिक्षित वर्ग सरकारी नौकरी में है। सबको और ज़्यादा समाजवाद चाहिए, सब बजाय समाज को सही दिशा देने के अपनी अपनी जाति, अपने अपने समूह के राजेशखन्ना के पीछे खड़े हो जाते है, क्यूँकि वह सरकार को डराकर और बड़ा हिस्सा छीनलेने का वायदा करता है।
हाथ कुछ आता नहीं, बस विनाश रह जाता है।
हमारे अनपढ़ पुरखे ही ज़्यादा बुद्धिमान थे। गाँव में मिलजुल कर तो रह लेते थे, आर्थिक लेन देन भी कर लेते थे।
व स्वतंत्रता व दासता में अंतर भी समझते थे।
शिक्षा तो lobotomy बन गयी है हमारे लिए।