प्रश्न था कि समाजवाद आपसे आपकी स्वतंत्रता के बदले समृद्धि देने की बात कहता है आप स्वतंत्रता देंगे क्या?
स्वतंत्रता एक बहुत ही ऐब्स्ट्रैक्ट अवधारणा है, पक्षी तोते के अतिरिक्त कदापि ही कोई अन्य जीव इसका महत्व जानता है, मनुष्य भी नही। दुनिया में जब भी लोगों को अवसर मिला स्वतंत्रता के बदले मुफ़्त कुछ पाने का, उन्होंने सदैव मुफ़्तखोरी को ही चुना। अब तो रूस का भी उदाहरण है, पूर्वी यूरोप, क्यूबा, उत्ता कोरिया, वेनेज़ुएला, ज़िम्बाब्वे व आर्जेंटीना का भी, लेकिन वामपंथी पार्टियाँ लगभग सभी देशों में अधिक काल के लिए सत्ता में रहती है। जब देश दिवालिया होता है तो दक्षिणपंथी पार्टी चुनाव जीतती है लेकिन अवस्था ठीक होते ही मुफ़्तख़ोरी वाली पार्टी फिर सत्ता में लौट आती है।
लेकिन डिस्कशन के लिए मान लेते है कि ग़रीब क्या स्वतंत्रता को खाएगा? अगर उसे मुफ़्त खाने को मिलता है व धनी लोग अपनी निजी सम्पत्ति खो बैठते है तो वह क्यूँ मुफ़्तखोरी को न चुने?
तो क्या समाजवाद में सभी लोग समान रूप से ही ग़रीब होकर भी क्या भर पेट खा पाते है?
समाजवाद अर्थशास्त्र के दो मूल नियमो का उल्लंघन करता है- Carl Menger का Law of Marginal Utility व Ricardo’s Law of Division of Labour. Carl Menger का नियम कहता है कि किसी भी वस्तु, यहाँ तक कि श्रम का भी कोई अंतर्निहित मूल्य नही है, अन्य मनुष्य ही हर वस्तु का मूल्य लगाते है व वे उसका मूल्य अपनी आवश्यकता के अनुसार लगाते है। Ricardo ने गणितीय विधि से सिद्ध किया कि श्रम विभाजन से उत्पादन बढ़ता है, जितना श्रम विभाजन होता जाता है समाज में, उत्पादन बढ़ता जाता है।
तो मनुष्य किसी वस्तु का मूल्य तभी लगा सकते है जब वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हो। अगर कोई सरकारी अधिकारी मूल्य तय करता है तो वह सही मूल्य कभी नही हो सकता क्यूँकि सरकारी अधिकारी स्वयं उस वस्तु के पूरे उत्पाद का कन्सूमर नही हो सकता।(इसीलिए अधिकारी के सत्यनिष्ठ (honest) होने से भी कुछ बदलेगा नही) हाट (मार्केट) में भी कोई व्यक्ति पूरे उत्पाद का कन्सूमर नही होता है, लेकिन वस्तुओं के मूल्य वास्तव में बहुत सारे लोगों के द्वारा उन के लगाए मूल्य का औसत भर होते है, व हर क्षण बदलते है। अत समाजवाद में ये मूल्य पता ही नही चल पाते। लेकिन मूल्य उत्पादक के लिए ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह होते है, वे बताते है कि कौन सी वस्तु कितनी पैदा करनी है व कहाँ बेचनी है। समाजवाद में ये ट्रैफ़िक सिग्नल ठप्प हो जाते है व परिणामत यातायात यानी आर्थिक गतिविधियाँ भी ठप्प हो जाती है। श्रम विभाजन भी असम्भव हो जाता है क्यूँकि किसी के श्रम का मूल्य जान पाना भी उसके व समाज के लिए असम्भव हो जाता है इसलिए कोई क्या श्रम करेगा पता लगा पाना असम्भव हो जाता है। ग़लत लोग ग़लत काम करने लगते है, BA पास IAS अधिकारी हवाई जहाज़ कम्पनी या रसायन कारख़ाने का मालिक बन जाता है।
इसीलिए समाजवाद सब को ग़रीब रखकर भी भर पेट खाना नही खिला पाता है। जब बेचने के लिए कुछ नही बचता तो परिवार की महिलायें अपना शरीर बेचना आरम्भ करती है। लोकतांत्रिक देशों में ये अवस्था आने से पहले ही लोग दक्षिणपंथी सरकार चुन लेते है व विपत्ति पाँच दस साल के लिए टल जाती है। लेकिन जहां भी सरकार बदलने का option नही है वहाँ या तो सरकार ने समाजवाद छोड़ा या उसका अंत महिलाओं की वेश्यावृति में हुआ सदैव, बिना किसी अपवाद के।
लेकिन स्वतंत्रता हो तो क्या हम सम्पन्न हो जाएँगे? यानी व्यक्ति विशेष को छोड़ दे जो सम्पन्न होना ही नही चाहता, थोड़े में प्रसन्न है, क्या समाज सम्पन्न हो जाएगा? उत्तर है नही। फिर से Carl Menger व Ricardo का नियम देखे। अगर लोग स्वतंत्र है लेकिन निजी सम्पत्ति सुरक्षित नही है व लोग वचन का पालन नही करते है तो वे ग़रीब ही रहेंगे। क्यूँकि Carl Menger के नियम का तो पालन हो पाएगा, लेकिन Ricardo के नियम का नही, क्यूँकि श्रम विभाजन बिना व्यापार सम्भव ही नही है क्यूँकि हर व्यक्ति कोई एक वस्तु पैदा कर रहा है लेकिन अन्य वस्तुयें भी उसे चाहिए होती है जो व्यापार में ही मिल सकती है, व व्यापार भी बिना वचन पालन व सम्पत्ति की सुरक्षा के सम्भव नही है क्यूँकि वचन पालन के अभाव में झगड़े ही होते रहेंगे व लोग या तो कोर्ट में रहेंगे या व्यापार व उत्पाद ही बंद कर देंगे, व सम्पत्ति सुरक्षित नही होगी तो मनुष्य न केवल अपने उत्पाद हाट (मार्केट) में नही लाएँगे, बल्कि पैदा ही नही करेंगे।
इसीलिए केवल स्वतंत्र, वचन का पालन करने वाले व अन्य की सम्पत्ति को व्यापार के अतिरिक्त न लेने वाले मनुष्यो, याने नैतिक लोगों, के समाज ही सम्पन्न होते है। कोई अपवाद नही है, न इतिहास में, न आज के विश्व में।