Tuesday, June 6, 2023

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रुपए केवल हमें अपना सामान बेचने ख़रीदने में सहायता करने के लिए होते है, रुपए ख़ुद सामान नहीं होते है।
 
वैसे तो सरकार को अपना काम अपनी आमदनी(टैक्स की आय) में चलाना चाहिए, लेकिन अगर सरकार अपनी आमदनी से ज़्यादा ख़र्च करना चाहती है तो उसके पास दो विकल्प है:
१-आपसे यानी जनता से उधार ले।
२-रुपए छाप ले।
 
पहले विकल्प में ज़्यादा समस्या नहीं है अगर उधार के पैसे से सालाना ख़र्चे की बजाय कोई नई, स्थायी सम्पत्ति खड़ी की जाए।
 
दूसरे विकल्प से पहले आइए पहले आप की बात कर ली जाए। मानिए के देश में सौ नागरिक है। सब ने कुछ सामान पैदा किया, बेच दिया, और अब अर्थव्यवस्था में सौ सामान, एक ही मूल्य के है, और हर किसी के पास आय का एक रुपया है जिससे वो अपने लिए सामान ख़रीदेने निकले है। हर सामान का मूल्य एक रुपया है। सबकी ज़रूरत अलग है और कुल ज़रूरत और कुल सामान बराबर है।
तो सबकी अपनी आय में सबकी सालाना ज़रूरत पूरी हो जाएँगी।
 
अब अगर सरकार अपनी आय से अधिक ख़र्च करने के लिए २० नोट छाप लेती है। अब बाज़ार में १२० रुपए है, सामान सौ ही है। क्यूँकि सरकार ये बीस रुपए अपने कर्मचार्यीयों एवं ठेकेदारों को पेमेंट के तौर पर, और व्यापारियों को क़र्ज़े के तौर पर ही दे सकती है, अत: मान लेते है कि २० लोगों को ये बीस रुपए मिल जाते है। अत: ये लोग ४० सामान ख़रीद लेंगे और बाक़ी ८० लोगों (जिन के पास याद कीजिए ८० रुपए है) के लिए केवल ६० सामान रह जाएँगे। मतलब उनको केवल .७५ सामान ही मिलेगा। अगर उनको एक सामान चाहिए तो उन्हें १.३३ रुपए ख़र्च करने पड़ेंगे। यानी उनके लिए महँगाई दर ३३% हो गयी है।
 
जब साल शुरू होता है तो सबसे पहले किसान अपना सामान बेचता है। उसका सामान १ रुपए में बिकता है। फिर सरकार के छापे नोट बाज़ार में आने लगते है और उसे अपनी ज़रूरत का सामान १.३३ में ख़रीदना पड़ता है। असल में उसके २५ पैसे छीनकर उनको दे दिए गए है जिनको छपे हुए नोट मिले है। अतिरिक्त सामान कुछ पैदा नहीं हुआ लेकिन कुछ लोग अमीर हो गए, और कुछ लोग ग़रीब हो गए।
 
इसके बजाय अगर ऐसा होता के कुछ लोग उत्पादकता बढ़ाकर ज़्यादा पैदा करते और बाज़ार में १२० सामान पैदा होते, तो तब भी कुछ ही लोग अमीर होते, लेकिन ग़रीब कोई नहीं होता, और क्या नैतिक है आप समझ सकते है।
 
कोई एक वस्तु महँगी हो सकती है माँग और सप्लाई में अंतर के कारण, जैसे किसी साल प्याज़ कम पैदा हो, लेकिन उस से आप पार पा सकते है उस साल कम प्याज़ ख़रीद कर। लेकिन जब महँगाई बढ़ती है नोट छापने के कारण तो आपके पास कोई विकल्प भी नहीं होता, और सरकार ही आपकी जेब पर डाका डालकर आपका पैसा किसी दूसरे को देती है।जब सभी चीज़ें महँगी हो रही होती है(जोकि नोट छापने से ही होता है), तो असल में आपकी जेब में पड़े रुपए की क़ीमत कम हो रही होती है, जैसे आपके रूपये का मूल्य एक पाइप से चूसकर आपका रुपया किसी दूसरे के जेब में पहुँचाया जा रहा हो।
 
अगर सरकार ईमानदार रहे तो उसका एक ही काम है अर्थ व्यवस्था में, और वो है रुपए का मूल्य बहुत सारी वस्तुओं की तुलना(Basket of commodities) में नियत (constant) बनाए रखना।
 
महँगाई ही वास्तव में असली टैक्स है जो सब पर बराबर लगता है, जिसका किसी को पता भी नहीं चलता, और पैसा जाता है शासको की जेब में। नया कुछ पैदा नहीं होता, कुछ लोग अमीर हो जाते है और बहुत सारे लोग ग़रीब हो जाते है। क्यूँकि बिना कुछ ज़्यादा पैदा किए कुछ लोग अमीर होने लगते है तो वो नया कुछ पैदा होने भी नहीं देते, और यथास्तिथि बनाए रखने की कोशिश में रहते है। लोग वो पैदा करते है जो उन्हें चाहिए जो इस तरह अमीर बन रहे है।इससे समाज की उत्पादकता की दिशा भी ख़राब हो जाती है। उत्पादन के साधन ग़लत दिशा में काम करने लगते है।
लेकिन अगर रुपए को ध्वस्त नहीं होने देना है तो नोट छपाई एक दिन बंद करनी पड़ती है (वरना ज़िम्बाब्वे व वेनेज़ुएला जैसा हाल हो जाता है), और जिन्हें इस तरह छपे नोट मिल रहे थे, वो अब अपनी पसंद की चीज़ें नहीं ख़रीद पाते है जबकि वो पैदा तो की ही जा रही है (एकदम उत्पादन बंद नहीं होता है), अत घाटा और बेरोज़गारी फैलती है।
 
नोट छाप कर लोगों की जेब से पैसा चुराने का शासकों का बहुत पुराना तरीक़ा है। इसी से विश्व में सब से ज़्यादा विनाश हुआ है। लेकिन शासक वर्ग(नेता, अधिकारी, मीडिया, अर्थशास्त्री, जज) से कभी कोई ये सच जनता को बताता भी नहीं है, और जनता ख़ुशी ख़ुशी अपनी जेब कटवाती है और अपने देश का विनाश होते देखती है।
 
पढ़ लो, मेरे भाईयो पढ़ लो। अर्थशास्त्र तो ज़रूर ही पढ़ लो, सब के सब। हर नागरिक।
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