हम से अधिकतर साइकल व तैराकी जानते है। लेकिन आपको याद होगा कि जब सीख रहे थे तो कितनी मुश्किल लगती थी। लगता था कभी हो ही नहीं पाएगा। सीख गए तो साइकल हाथ छोड़कर चलाओ, कैसे भी चलाओ साइकल चलती है, और पानी में खड़े भी रहो, या लेट भी जाओ तो डूबते नहीं है।
अर्थशास्त्र ऐसे ही है। नहीं पढ़ो तो रहस्यमयी, और पढ़ लो तो लगता है सारा झमेला किस बात का है।
अर्थशास्त्र पढ़ लेंगे तो मनुष्य के विवेक पर से विश्वास उठ जाएगा। कि कैसे ये लोग वामपंथीयो को अपना सब कुछ नष्ट करने दे रहे है। और वामियों से घृणा से भी अधिक कुछ हो जाएगा। दस साल के आस पास लगते है लेकिन उसके बाद अर्थशास्त्र साइकल व तैराकी जितने ही आसान लगता है।
अर्थव्यवस्था एक सेल्फ़-evolving सिस्टम है। सब लोग कुछ पैदा करते है। आरम्भ में हर परिवार अपनी आवश्यकता की सारी वस्तुयें पैदा करता है तो कुछ व्यापार नहीं होता, लेकिन परिवार के पास कुछ सर्प्लस भी नहीं होता। कुछ बेचो नहीं तो कुछ ख़रीद भी नहीं सकते किसी से। फिर गाँव बसता है तो लोगों को पता चलता है कि हर व्यक्ति कोई एक वस्तु पैदा करे और अन्य वस्तुयें औरों से अपनी पैदा की हुई वस्तु देकर लेले तो दक्षता बढ़ती है व ख़ाली समय भी बढ़ता है। फिर पता चलता है कि वस्तु के बदले वस्तु ना देकर कोई ऐसी धातु जो स्थायी हो को ले ले तो किसी अन्य से उसकी पैदा की हुई वस्तु काफ़ी समय बाद भी ली जा सकती है वह धातु देकर, व थोड़ी थोड़ी मात्रा में बहुत सारी वस्तुयें ली जा सकती है धातु की थोड़ी थोड़ी मात्रा देकर। वह धातु ही पैसा है व इस तरह पैसे का जन्म होता है। पैसा केवल एक माध्यम भर है अपने उत्पाद को अन्यो के उत्पाद से बदलने का। मतलब अगर कोई भी कुछ भी सर्प्लस पैदा नहीं कर रहे है सब अपनी हर ज़रूरत अपने ही उत्पाद से पूरा कर लेते है तो ना पैसे हो सकता है ना पैसे की कोई आवश्यकता।
अगर सारे उत्पाद एक ही गाँव में पैदा ना हो तो कुछ लोग एक गाँव से उत्पाद ख़रीद कर दूसरे गाँव में बेच देते है व दूसरे गाँव के उत्पाद पहले गाँव में लाकर बेच देते है। ऐसे व्यापार का जन्म होता है। व्यापार से भी दक्षता बढ़ती है व वस्तुये मूल्यवन होती है, आप कुछ पैदा करे व आपके गाँव में उसकी किसी को आवश्यकता ही ना हो व व्यापार होता न हो तो आपकी वस्तु का मूल्य शून्य है।
अगर एक व्यक्ति A वस्तु पैदा करे व दूसरा व्यक्ति B वस्तु पैदा करे व दोनो आधी आधी देकर A/2 +B/2 कर ले तो अर्थव्यवस्था में कुल वस्तुये A+B होंगी। लेकिन अगर पहला व्यक्ति कुछ भी पैदा न करे व दूसरा व्यक्ति B वस्तु पैदा करे व वामपंथी उससे छीनकर पहले व्यक्ति को B/2 वस्तु दे दे तो अर्थव्यवस्था में कुल वस्तु B होंगी, A+B नहीं। दूसरा व्यक्ति एक दो बार छीन लिए जाने के बाद केवल B/2 ही पैदा करता है व पहला तो इस आस में कि वामपंथी आता ही होगा छीनकर मुझे देने के लिए, कुछ पैदा करता नहीं है इसलिए कुछ समय बाद अर्थव्यवस्था में B/2 वस्तु ही रह जाती है। इसीलिए समाजवाद सदा व हर जगह असफल हो जाता है व समाज व देश दोनो को नष्ट कर देता है।
इतनी साधारण सी बात किसी की समझ में नहीं आती, क्यूँकि बार बार आग्रह करने के बाद भी कोई अर्थशास्त्र पढ़ने को तैयार नहीं होता। अर्थशास्त्री इसलिए नहीं बताते कि कोई सुनता नहीं, व सच बोलो तो नौकरी जाती है, नेता व नौकरशाह अर्थशास्त्री को बर्बाद कर देते है। आम आदमी इसलिए नहीं सुनते क्यूँकि मानसिक रूप से शिशु ही होते है व सोचते है कि जैसे बचपन में रोते ही खाना मिलता था, ऐसे ही रोएँगे तो खाना मिलेगा। अर्थशास्त्री भी वामी की हाँ में हाँ मिलाता है तो ऊँचे, और ऊँचे पद मिलते जाते है।
वापिस आते है उस धातु पर जिसे हमने पैसा कहा था। आप समझ गए होंगे कि सभी व्यक्ति उस धातु की एक निस्चित मात्रा का उतना ही मोल लगाते है तभी वह पैसे के रूप में प्रयोग होती है। राजा का काम उतना ही होता था कि उस पर अपनी मोहर लगाता था। मोहर देखकर लोग उसके वज़न व गुणवत्ता पर विश्वास कर लेते थे व हर व्यक्ति उस सिक्के का उतना ही भाव लगाता था। तो पुराने ज़माने में राजा लोग सिक्के में दूसरी सस्ती धातु की मिलावट कर जनता का धन चुराते थे। मतलब ऐसे कि सोने के एक सिक्के में अगर एक किलो गेहूँ आता था व राजा के पास टैक्स का एक सोने का सिक्का आया तो वह एक किलो ही गेहूँ ख़रीद पाएगा। लेकिन उस सिक्के में अगर वह मिलावट कर दो सिक्के बना ले तो वह टैक्स के एक सिक्के से दो किलो गेहूँ ख़रीद लेगा। मतलब जनता का एक किलो गेहूँ राजा ने चुरा लिया।
फिर आए काग़ज़ के नोट। काम उनका भी वही है जो धातु के सिक्के का था: वस्तुओ के व्यापार को सरल बनाना। और आज के शासक भी उसी तरह से नोट छापकर जनता को लूटते है जैसे पुराने ज़माने के राजा सिक्कों में मिलावट कर लूटते थे।
कैसे? मन लीजिए एक देश में सौ लोग है व हर व्यक्ति एक वस्तु पैदा करता है व हर व्यक्ति के पास एक रुपया है, व हर वस्तु का दाम भी एक रुपया है। अगर कल नोट छापकर हर व्यक्ति के पास के पास दो रुपए कर दिए जाए व उत्पादन प्रति व्यक्ति एक वस्तु ही रहे तो हर व्यक्ति के पास एक वस्तु के लिए दो रूपये हो जाएँगे, यानी हर वस्तु की क़ीमत दो रुपए हो जाएँगी, यानी महँगाई बढ़ जाएगी, यानी कि रुपए का मूल्य आधा हो जाएगा। इसी को लोग boom bust साइकल का फ़ैन्सी नाम देते है: आरम्भ में सबको लगता है कि अरे वाह दो रुपए आ गए हम तो पैसे वाले हो गए, जल्द ही पता चलता है कि पैसे का लेकिन मिलता कुछ नहीं है।
यहाँ आता हूँ में उस खेल पर जो भारत में चल रहा है और जिसकी वजह से बैंकिंग स्कैम भी हुआ।
जब सरकार नोट छापती है तो हर वक्ति के पास नए नोट एक साथ व बराबर मात्रा में नहीं पहुँचते। जो लोग सरकार से व्यापार करते है उन्हें व जो बैंक से लोन लेते है उन्हें मिलते है। ऊपर लिखे उदाहरण में अगर तीस लोगों को सारे नए नोट आरम्भ में मिलेंगे तो वे एक रुपए की एक एक वस्तुयें ख़रीद कर रख लेंगे। फिर जब सब के पास व्यापार द्वारा एक एक अतिरिक्त रुपया पहुँच जाएगा तो अंत में जिसके पास पहुँचेगा उसे वस्तु दो रूपये में मिलेगी। याने उसकी वस्तु बिकी एक रुपए में थी व उसे ख़रीदनी पढ़ी दो रुपए में। याने के उसकी wealth पहुँच गयी उन लोगों के पास जिनको सबसे पहले नए अतिरिक्त नोट मिले थे। सरकार द्वारा अतिरिक्त नोट छापने से ग़रीब व किसानो की wealth धनी लोगों के पास पहुँच जाती है।
यही खेल है जो सत्तर साल से भारत में चल रहा है।
1947 में एक US डॉलर एक रुपए का था। अब पैंसठ रुपए एक डॉलर के बराबर है।याने रुपये का मूल्य एक/पैंसठ रह गया। बाक़ी ६४/६५ कहाँ गया? सरकार के आस पास के धनी लोगों की तिजोरी में पहुँच गया सरकार द्वारा नोट छापने की वजह से। आपके पिता के पिता के पास जो एक रुपया था उसमें से ६४/६५ भाग चुराकर सरकार के पिठु धनी लोगों में बाँट दिया गया आप के हिस्से आया १/६५ रुपया।
मत पढ़ो अर्थशास्त्र, दे लो समाजवादियों को वोट। कर लो मुफ़्तखोरी। इसीलिए नौकरी के लाले पढ़े हुए है।
(और हाँ, सरकार बस इतना ही कर सकती है अर्थ व्यवस्था के लिए , और यही उसकी duty भी है कि रुपए का मूल्य नियत रखे, नोट छापकर ग़रीब व किसान की wealth चुराए नहीं।)