सौ साल में पूंजीवाद ने कैसे दुनिया को ट्रान्स्फ़ोर्म कर दिया, कैसे वो सुविधाए जो केवल राजाओं के भाग्य में होती थी हर ग़रीब के घर पहुँचा दी, इस पर पोस्ट लिखी तो वही घिसा पिटा रिकॉर्ड बजने लगा: “अगर सारे उद्यम सरकारी होते तो तब भी वही होता, वो तो कॉम्युनिस्ट इसलिए असफल हो गए क्यूँकि कॉम्युनिज़म ठीक से लागू ही नहीं हुआ क्यूँकि वे योग्य नहीं थे, सत्यनिष्ठ नहीं थे, कॉम्युनिज़म असफल नहीं हुआ उसे लागू करने वाले असफल हुए।”
अंधविश्वास का कोई उत्तर नहीं होता। अंधविश्वासी के पास हर परिणाम की व्याख्या explanation होती है। “वर्षा हुई तो मेरी प्रार्थना से हुई, नही हुई तो ऊपरवाला मेरी परीक्षा ले रहा है।” और बोलो………
फिर भी, कर्त्तव्य ही जीवन है। प्रयास सदैव करते रहना चाहिए।
हाँ तो अगर सारे सरकारी नौकर सत्यनिष्ठ हो जाय तो क्या समाजवाद सफल हो जाएगा? सत्यनिष्ठ होना योग्य होना नहीं होता है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति एकदम अयोग्य, निरा मूर्ख हो सकता है। चलो अगर UPSC ने योग्य व्यक्ति भी चुन लिए। तो क्या समाजवाद सफल हो जाएगा? जिसने अपने विषय की परीक्षा में अन्य सबसे अधिक अंक पाए हो वह उद्यमी ही हो आवश्यक नहीं होता। दुनिया की कोई परीक्षा नहीं है जो उद्यमी को ढूँढ सके। तो अगर UPSC ने चमत्कार कर ऐसी परीक्षा भी बना ली जो उद्यमी ढूँढ सके तो क्या समाजवाद सफल हो जाएगा?
नहीं, तब भी समाजवाद सफल नहीं हो पाएगा।
क्यूँकि अगर मार्केट नहीं है, बाज़ार नहीं है जिसमें सभी लोग ख़रीदने के लिए ही नही बेचने के लिए, उत्पादन करने के लिए भी स्वतंत्र है, तो किस वस्तु का क्या मूल्य हो सरकारी उद्यमी को पता ही नहीं चल सकता। उसे यह भी पता नहीं चल सकता कि कोई वस्तु कितनी बनाए: लिप्स्टिक कितनी बनाए व शैम्पू कितने बनाए, क्यूँकि मूल्य नहीं है तो माँग का भी पता नहीं चल सकता। जी, मूल्य, price वह पोईंट होता है जिस पर माँग व आपूर्ति, demand व supply बराबर हो जाते है। इसी पोईंट के उतार चढ़ाव से उद्यमी पता करता है कहाँ कितना पैसा लगाए या न लगाए। अगर मार्केट नहीं है तो price भी नहीं है क्यूँकि किसी भी वस्तु का अपना कोई निहित मूल्य नहीं होता है, जो मनुष्य मूल्य लगाए, वही उसका मूल्य होता है, व मूल्य लगाने वाले दो लोग होते है: बेचने वाला व ख़रीदने वाला। अगर दोनो स्वतंत्र नहीं है तो price का पता नहीं चल सकता, व अगर price का पता नहीं चल सकता तो कोई भी economic calculation सम्भव नहीं है, आर्थिक गणना सम्भव नहीं है, बिना गणना कुछ भी अन्य सम्भव नहीं है। अगर गणना ही उपलब्ध नहीं है तो इन्वेस्टमेंट का निर्णय ही सम्भव नहीं है।
कॉम्युनिज़म का ये fatal flaw मूल दोष 1920s में ही पता चल गया था। लेकिन जैसे वे धर्म जिनकी उनके भगवान द्वारा दी गयी किताब में धरती चपटी लिखी है, धरती गोल सिद्ध होने पर भी समाप्त नहीं हुए, उसी तरह से कॉम्युनिज़म/समाजवाद भी समाप्त नहीं हुआ। क्यूँकि अंधविश्वास व्यक्ति का सोचने का उत्तरदायित्व समाप्त कर देता है, व बहुत कम लोग है इस दुनिया में जो सोचना चाहते है, अधिकतर लोग केवल विश्वास करना चाहते है।
फिर कुछ समाजवादीयो ने कहा कि हम उद्यम सरकारी रखेंगे, लेकिन उपभोक्ता स्वतंत्र होंगे, क्या ख़रीदे, क्या न ख़रीदे। याने money समाप्त नहीं करेंगे, यद्यपि कॉम्युनिज़म ने मनी को समाप्त करने की बात की थी। तो क्या इस परिवर्तन से समाजवाद सफल हो जाएगा? नहीं होगा, न हुआ, क्यूँकि मूल्य price ज्ञात होने के लिए ख़रीदने वाला व बेचने वाला दोनो स्वतंत्र होने चाहिए। लोहे की खदान का मालिक सरकारी बाबू कभी नहीं जान पाएगा कि स्टील मिल को लोहे का खनिज कितने में बेचे (खदान व मिल दोनो सरकारी है।)
विषय तकनीकी है, फिर भी मैंने प्रयास किया है। यद्यपि मूल assumptions ही कभी सम्भव नहीं है (कि सारे सरकारी कर्मचारी सत्यनिष्ठ, योग्य, व उद्यमी हो)। ऐसे आदर्श व्यक्ति पैदा करने के लिए कॉम्युनिस्ट अभी तक बारह करोड़ लोग मार चुके है, लेकिन हाथ आया तो केवल क्यूबा, नोर्थ कोरिया व वेनेज़ुएला।
लेकिन “समाजवाद सही से लागू ही नहीं हुआ” चलता रहेगा व इसका कोई उत्तर भी कभी नहीं होगा। मुक्त बाज़ार व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए संघर्ष अनंत है, क्यूँकि ऐसे लोग सदैव आते ही रहेंगे जो लोगों से कहते रहेंगे कि वे उन्हें नौकरी, घर, अस्पताल, स्कूल सब मुफ़्त देंगे, बस सत्ता मिल जाय एक बार……..
सड़क किनारे पौरुष की दवा सदियों से लोग बेच रहे है, व लोग ख़रीदते भी है।
(यद्यपि वियाग्रा भी अंत्तत पूँजीवाद ही लाया…….) ( उस उद्यमी को भी धन्यवाद कहने के बजाय माँग करेंगे लोग कि बहुत महँगी बेचता है ये, इसका राष्ट्रीयकरण करो, व अगले चुनाव में केजरीवाल मुफ़्त वियाग्रा का चुनावी वायदा कर चुनाव भी जीत जाएगा।)