Saturday, December 9, 2023

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मैंने कई वर्ष पहले Discovery चैनल पर एक documentary देखी थी, शेरों के झुंड पर। Documentary बनाने वाला दल कई साल तक उसी झुंड के साथ रहा था।
उसमें उन्होंने एक तथ्य देखा था व उस पर चर्चा भी की थी, कि जैसे ही झुंड के male शावक स्वयं शिकार करने लायक बड़े होते थे, शेरनिया ही, यानी उनकी माँये ही उन पर हमले कर उन्हें झुंड से बाहर निकाल देती थी। झुंड का सरदार male शेर नहीं, शेरनिया male शावकों को बाहर करती थी, उन पर वास्तविक हमले कर। प्रकृति का सम्भवत अपना तरीक़ा था नए शेर बनाने का: जाओ बेटा, शेर हो तो अपना झुंड बनाओ, किसी बूढ़े शेर का झुंड क़ब्ज़ाओ, नहीं तो मरो।
इंगलैंड में आम किसान परिवारों में भी primogeniture का नियम रहा है- पूरी ज़मीन बड़े बेटे को, बाक़ी बेटे युवा होते ही घर से बाहर। जाओ, कमाओ खाओ, मरो-खपो। विवशता में अंग्रेजो ने ओद्योगिक क्रांति भी कर डाली- मरता क्या न करता, फ़ैक्टरी ही लगाओ, ज़मीन तो मिली नहीं। व पूरी दुनिया की ज़मीन क़ब्ज़ा ली। सब जगह उनका राज। सारे टापू उनके।
शेर पैदा किए अंग्रेजो ने, बेटों को घर से निकाल कर।
Second-son का ये नियम अमरीका में cruel निर्दयी माना गया, व समाप्त कर दिया गया (सारे ही second sons गए थे वहाँ, शायद इसलिए)। लेकिन बेटे को बड़ा होते ही घर से निकालने की परंपरा जारी रही-“स्कूली शिक्षा हमने दे दी, कॉलेज में पढ़ना है बेटा तो प्लेटे धोओ, स्वयं कमाओ और पढ़ो।” वहाँ श्रम का सच्चा सम्मान है। अभी न्यूयॉर्क में एक छब्बीस वर्षीय पुत्र माँबाप के साथ रहने की ज़िद कर रहा था, माँ बाप कोर्ट में चले गए, कोर्ट ने भी निर्णय दिया-घर से निकालो इसे, अपना घर बसाए और रहे।
गमले का पौधा घर के अंदर रहे तो सुरक्षित तो रहता है, लेकिन कमज़ोर, मुरझाया सा।
भारत में पारिवारिक स्नेह बहुत अधिक है, रिश्तेदारिया भी पाँच छह पीढ़ियों तक निभायी जाती है, इससे भारतीय मानसिक रूप से बहुत स्थिर होते है, स्नेहशील होते है व निर्दयी नहीं होते।
लेकिन अधिकता हर चीज़ की बुरी होती है। इतना अधिक स्नेह हो गया है कि माँ बाप let go नहीं कर पाते। हर समय बच्चे की चिंता में जीते है। बच्चा आत्मरक्षा भी नहीं सीख पाता।
दूसरा हमारी परंपरा बन गया है कि बच्चे की सफलता माँ बाप का उत्तरदायित्व बन गया है: बच्चे भी राग अलापते रहते है,”मेरे माँ बाप ने मेरे लिए क्या किया, कुछ नहीं किया।” पड़ोसी भी मिलते ही पूछते है , “बच्चे क्या कर रहे है?”
इस उत्तरदायित्व से ही आधी बीमारीया आयी समाज में। समाज मानने को तैयार नहीं है कि winner के यहाँ loser पैदा होना प्राकृतिक है व इसमें माँ बाप का कोई रोल नहीं है। लेकिन न समाज मानता है, न माँ बाप- लगे रहते है , पेपर आउट कराएँगे, घूस देंगे, सिफ़ारिश कराएँगे……पूरी कमाई लाड़ले के बिज़्नेस में फूँक देंगे।
किसी एक परिवार का दोष नहीं है, संस्कृति है हमारी, लेकिन बात करने से ही बदलेगी।
The Daily Mail द्वारा घोषित 10000 पाउंड स्टर्लिंग के पुरस्कार को Alcock व Brown ने जीत लिया था 1919 में अटलांटिक को हवाई जहाज़ से बिना रुके पार कर। व आठ साल बाद ही Charles Lindbergh ने Orteig पुरस्कार जीत लिया था अटलांटिक को solo non stop फ़्लाइट में पार कर।और उसके पाँच साल बाद Amelia Earhart पहली महिला बन गयी ये उपलब्धि प्राप्त करने वाली।
हम तो अपने बेटों को बोले,”चुपचाप घर बैठो, हमें नहीं चाहिए कोई पुरस्कार……” और बेटी? बेटी तो अकेले घर से बाहर भी नहीं जाएगी अटलांटिक को तो लगे आग।
1967 में अमरीका में चाँद पर जाने वाले रोकेट की टेस्टिंग के दौरान ज़मीन पर ही उसमें आग लग गयी व तीन Astronauts की मृत्यु हो गयी। लेकिन दो साल बाद ही अमरीकी चाँद पर पहुँच ही गए। कोई हाय तौबा नहीं, कोई जाँच आयोग नहीं जिसकी रिपोर्ट आने तक फ़्लाइट का कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाय।
Those who take risks, walk on the Moon.

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